क्यों मनाएं महिला दिवस?

आज महिला दिवस है.. और मेरे मन में ये सवाल आता है कि क्यों हैं? और फिर शुरु होता है एक विमर्श कि महिला होने के लिये आपको कितने संघर्ष करने होते हैं। हमारे देश में एक बेटी का जन्म लेना ही मानो एक आंदोलन का जन्म है। समाज में कोई उसे देवी लक्ष्मी की उपाधि दे देता है तो कोई दबी आवाज़ में उसे बोझ सरीखा बता देता है। कोई कहता हैं दूसरा बेटा हो जायेगा, ये तो पराई अमानत है कहकर माता पिता को एहसास करा देता है कि या तो आप नारी सशक्तिकरण के इस आंदोलन में शामिल हो जाइये या फिर आप मौन समर्पण कर दीजिये। आप सामान्य माता पिता नहीं हो सकते।
इसके बाद बेटियों की शिक्षा की बात आती है तो उसके लिये अब बहुत अधिक संघर्ष तो नहीं करना पड़ता क्योंकि वो सावित्री बाई फूले और बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने स्त्री शिक्षा का अधिकार दिला कर, कर लिया था। आज संघर्ष है निम्न और मध्यम वर्गीय लड़की का स्कूल जाना। गर्ल्स कॉलेज हो या कोई और रास्ते में मनचले आशिकों की निगाहे और प्यार के झूठे झमेले से बचना अपने आप में संघर्ष है। आज की इस आधुनिकता का चोला पहने समाज में जब किसी दस,बारह या पंद्रह साल की नाबालिक लड़की के स्कूल में बलात्कार की खबर आती है या कोई मनचला एसिड फेंक देता है तो ये आधुनिकता का चोला बहुत बारीक लगता है और इसके अंदर से झाँकती है वही शर्मिंदा करने वाली मानसिकता जिसमें स्त्री, लड़की या अबोध बालिका आपको सिर्फ काम वासना पूरी करने का माध्यम ही लगती है।
कभी सोचते थे कि स्त्री पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बन गयी तो वो सब कुछ कर सकती है लेकिन फिर एक डॉक्टर के साथ कुकृत्य किये जाने की खबर आयी और ये उम्मीद भी टूट गयी।

अब मुझे सच में समझ आ गया है कि इस देश में महिला दिवस मनाना क्यों जरूरी है क्योंकि ये याद दिलाना बार बार जरूरी है कि इस देश में जन्म लेती कन्या से लेकर सड़क पर पढ़ने जाती बेटी या नौकरी करने जाती लड़कियां या एक मां, एक पत्नी और एक वृद्धा स्त्री ने अपने जीवन के हर मोड़ पर तमाम संघर्ष किये हैं। हमें इन संघर्षो को धीरे धीरे कम करना ही होगा। जिससे आगे कोई स्त्री सिर्फ स्त्री होकर जी सके। घर से निकले तो उसे पेपर स्प्रे, चाक़ू लेकर न चलना पड़े उसे अपनी सुरक्षा के लिये हर वक़्त चौकन्ने रहकर ऑटो बस और कैब का नंबर न नोट करना पड़े। महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वालों को ऐसी सजा दी जाये जिसके बारे में सोचकर भी लोग डरें और ऐसे अपराध अब रुकने ही चाहिए। पहलू और भी हैं जैसे कार्यस्थल पर बराबर वेतन, घरेलू कामकाज में महिला पुरुषों की बराबर भागीदारी हो, राजनीति में महिलाओं को अपने अधिकारों की मांग और पक्ष रखने के लिये पर्याप्त स्थान मिले। घरेलू कामकाज और बच्चोँ की परवरिश में दिन रात अपने सपनों को ताक पर रख देने वाली महिलाओं को आर्थिक सहायता की जाये और घर से कार्य करने के जरूरी अवसर मिल पाये । सुरक्षा के साथ महिलाओं के स्वास्थ्य के लिये किशोरावस्था में आयरन की कमी को पूरा करने के लिये दी जाने वाली टेबलेट जो सरकारी आंकड़ों और योजनाओं में आंगनबाड़ी केंद्रों द्वारा खूब बंटती है उन्हें हकीकत के धरातल पर सच करने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से मातृ एवं शिशु कल्याण के लिये चल रही योजनाओं में भी पर्याप्त भ्रष्टाचार व्याप्त है जिसे खत्म किया जाना जरूरी है। जिससे मां और बच्चे को पर्याप्त पोषण और आर्थिक मदद मुहैया कराई जा सके।वृद्ध महिलाओं और विधवा महिलाओं के स्वास्थ्य, सुरक्षा और आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को आर्थिक सहायता प्रदान किये जाने की ओर कदम बढ़ाये जाने की जरूरत है।
अतः मुद्दे कई हैं, बातें कई हैं, मसले कई हैं संघर्ष कई हैं इन पर विमर्श और इनके समाधान ढूंढना जरूरी है। और सबसे ज्यादा जरूरी है एक दूसरे की मदद के लिये तत्पर होना, अगर हम सब संघर्ष के साथी हैं तो क्यों नहीं एक दूसरे को मदद करते? क्यों प्रतिस्पर्धा करते हैं आपस में ही? क्यों जजमेंटल हो जाते हैं हम? समाज में सुधार देखने के लिये हम सबसे पहले स्वयं में बदलाव लाएं और प्रण लें कि महिलाओं के संघर्ष के साथी बनेंगे उनके संघर्ष को बढ़ाएंगे नहीं.. और ये प्रण हर महिला और हर पुरुष ले तब सार्थक है ये महिला दिवस अन्यथा नहीं !
शालिनी श्रीवास्तव के कलम से ….
Excellent 👌 👌
Thanks