सामा चकेवा की कथा
पौराणिकता एवं लौकिकता के इस लोक पर्व की कहानी कुछ यूं है—
द्धापर युग में राजा जाम्बन्त की पुत्री जाम्बती की शादी कुष्ण से हुआ था।जिससे उनको शाम्ब नाम का एक पुत्र और शाम्बा नाम की एक पुत्री हुई थी। दोनों भाई बहन में अपार स्नेह था। कृष्ण की पुत्री शाम्बा ऋषि कुमार चारूदत्त से ब्याही गयी थी। शाम्बा ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रम वृंदावन में जाया करती थी। भगवान कृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुरक को यह रास नहीं आया और उसने शाम्बा के विरूद्ध लाक्षणा लगा कर राजा के कान भरना शुरू किया। क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण ने शाम्बा को ‘चकवी’ पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया।

शाम्बा का पंक्षी चकवी बन जाने के बाद चारुदत्त भगवान शिव का तपस्या करने लगे। भगवान शिव प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो वरदान में चारुदत्त ने शाम्बा को पुनः मानव जन्म मे परिणत करने का वर मांगा । तो भगवान शिव कहे कि मैं श्री कृष्ण के श्राप को नहीं बदल सकता हूँ परन्तु तुझे भी चकवा पंक्षी बनाकर चकवी के संग आकाश मे विचरण करने का वरदान देता हूँ। उस दिन से चारुदत्त और शाम्बा चकवा–चकवी बनकर आकाश में विचरण करने लगे। आकाशमे पंक्षी बन उड़ते उड़ते उन दोनों का हालत खराब होने लगा। अपनी बहन का ये हाल देख भाई शाम्ब बहुत दुःखी हुये और वृन्दावन में जाकर भगवान विष्णु का आराधना करने लगे, कि दोनों को मनुष्य रुम में वापस लाबें। चुडक यह देख वृन्दावन में आग लगा दिया। शाम्ब का कुत्ता झाँझी चुडक को आग लगाते देख उसका मुँह नोंच लिया और पानी ला ला कर आग बुझाने लगा। तब जाकर शाम्ब का तपस्या पुर्ण हुआ तो भगवान विष्णु शाम्ब को अपने बहन बहनोइ को मनुष्य रुप में वापस लाने का तरकीब बतलाये।

कैसे पहुंचा मिथिला
जनश्रुति के अनुसार शरद महीने में सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ियां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गयी थीं। भाई शाम्ब उसे खोजते खोजते मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं और कुमारी कन्याओं से अपने बहन-बहनोई को श्राप से मुक्त करने के लिये सामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया और कहते हैं कि उसी द्वापर युग से आजतक मिथिला में इसका आयोजन हो रहा है। उधर कृष्ण भी अपने राज में बेटी दामाद को आने का अनुमति दे दिये। शाम्ब अपनी बहन-बहनोई को नगर के बाहर एक जूते हुए खेत में घर बना कर बसाये। उसी दिन से लोग उन्हें सामा चकेबा कहने लगे। चुडक के चुगलखोड़ी प्रवृति के कारण शाम्ब चुरक को चुगला कह कर श्राप दिये कि जिस मुँह से तु मेरी बहन का चुगली किये हो , लोग तुम्हारे उसी मुँह को झड़काएँगे और तुझे कहीं भी सम्मान नहीं मिलेगा।

भाई बहन के प्रेमका प्रतीक :-
वैसे तो भारत में भाई बहन के प्रेम के प्रतीक कई त्योहार है लेकिन उनमें से खासकर मिथिला में मनाया जाने वाला सामा-चकेवा काफी महत्वपूर्ण है। मिथिला अपनी लोक संस्कृति, पर्व-त्योहार एवं परंपरा के लिए प्रसिद्घ रहा है। आस्था का महापर्व छठ के उपरांत भाई-बहन के अटूट स्नेह व प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा पर्व की शुरुआत होती है।
सामा-चकेवा पर्व मिथिला की बहनें अपने भाई की लंबी उम्र एवं सुख समृद्धि की मंगलकामना से मनाती है। इसमें बहनें अपने घर पर ही मुहल्ले की कुशल भाभियों की मदद से मिट्टी, खर, सँठी, पटुआ आदि से मूर्ति बनाती हैं। फिर उसको रँगती भी है। वर्तमान में सामा चकेवा बनाने में कमी जरूर आई है। लोग बाजार से बना हुआ मूर्ति ही खरीद रहे हैं।
सामा-चकेवा पर्व के दौरान बहनें सामा, चकेवा, सतभईयां, खड़रीच, चुगिला, वृन्दावन, चैकीदार, झाँझी कुत्ता, शाम्ब आदि की प्रतिमा एवं उपकरण चंगेरा ( बांस की टोकरी ) में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिये भाईयों के लिए मंगलकामना करती हैं। संध्याकाल में गाँव के चौराहे, या बड़े दरवाजे के अंगनइ में सभी लड़कियाँ एवं उनकी भाभी इकठ्ठा होती हैं।

फिर चलता है सम्मलित रूप से पारंपरिक मैथिली लोकगीत गाने का दौर जैसे :-
*सामा चकेवा खेल’ गेलीए हे बहिना………
*गाम के अधिकारी तोहे बड़का भैया हो………
*छाऊर छाऊर छाऊर, चुगला कोठी छाऊर,
भैया कोठी चाऊर……….
*साम चके साम चके अबिह हे, अबिह हे।
जोतला खेत मे बैसिह हे, बैसिह हे…….
*भैया जीअ हो, जुग जुग जीअ हो……..
इसके बाद खड़ से बने नकली वृंदावन में आग लगाती हैं और बुझाती हैं। इस दौरान महिलाएं-
*वृंदावन में आगि लागल क्यों न बुझाबै हे,
हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबै हे,
हाथ सुवर्ण लोटा वृंदावन मुझावै हे………
गीत गाती हैं।
इसके बाद महिलाएं चुगला (संठी से निर्मित) को गालियां देती हुई। उसके दाढी में आग लगाते हुए गाती है कि-
*चुगला करे चुगलपन,
बिल्लइया करै म्याउं,
ध’ के ला चुगला के फांसी द’ आउं’……..

इन गीतों के बीच बीच मे भाभी औऱ ननदों के बीच हास्य विनोद, हंसी ठिठोले भी काफी मनोरंजक होता रहता है। कार्तिक शुक्ल पंचमी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक नौ दिन यह पर्व मनाया जाता है।
पूर्णिमा को विसर्जन
कार्तिक पूर्णिमा के रात इस पर्व का समापन होता है। समापन के पूर्व बहन अपने भाइयों को नए धान का चूड़ा और दही चीनी खिलाती हैं। फिर भाईयों के द्वारा सामा-चकेवा की मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है और उसका आकर्षक रूप से सजे बेर में रखकर नदी एवं तालाब या जूते हुए खेतों में विसर्जित कर देती हैं। विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करते हुए :-
*सामचको-सामचको अबिह हे, अबिह हे,
जोतला खेत में बैसियह हे, बैसियह हे,
सब रंग पटिया ओछबइह हे, ओछबइह हे,
भइया के आशीष दीह हे, दीह हे…………
गाना गाती हैं। विसर्जन के दिन भाइयों की काफी अहम भूमिका होती है।

चंपारण से बंगाल तक मिथिला संस्कृति :-
सामा-चकेवा हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और चम्पारण से लेकर बंगाल तक मनाया जाता है। मालदह में बंगला भाषी होने के बाद भी वहाँ की महिलाएं एवं युवतियां सामा-चकेवा पर मैथिली गीत ही गाती हैं, जबकि चम्पारण में भोजपुरी—मैथिली मिश्रित सामा-चकेवा के गीत गाए जाते हैं।
Written By: – Anil Jha 099556 44005
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