अश्कों के भंवर

तकलीफ के गलीचे में घिसटती ए ज़िंदगी,
लगता है ये डिग्रियां क्या हैं बस रद्दी है!
अश्कों के भंवर में तड़पती हुई एक मछली ,

गैरों के भेष में देखो ये अपनों की एक मंडी है।
व्यापारी हर कोई घाटा नहीं है चाहता ,
हर एक की फितरत एक सी , हर आदमी घमंडी है।

उल्फत की सारी बातें बस झूठी हैं बेमानी है,
ये बस ख़्वाब लूटने की साजिश है, बहुत पुरानी है।
ये किताबी बातें और जो नियमों की किताबें थी ,

इनसे नहीं कुछ होता यहाँ होती बस मनमानी है।
तुम्हें क्या लगता है तुम लड़ लोगे जीत लोगे?

तुम्हें खबर नहीं होगी कि असली लड़ाई तुमने , अपने आप से ठानी है!
खबरों की तमाम आवाजें समझाती तो थी,
मगर कहां समझोगे तुम? तुम्हे तो ठोकरें खानी हैं!

दरिंदगी की दुनिया को तुम खुदा के नाम से डराती थी ,
अरे ये खुद ही खुदा बन बैठे हैं , डर में तुम्हें ज़िन्दगी बितानी है !
– शालिनी